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नंदा काकी भाग 2

नंदा काकी भाग 1

चाय के समय घर की ओर कदम बढ़े। हमारे घर से कुछ ही दूरी पर नंदा का घर पड़ता था। घर के दरवाजे पर देहली थी। उसी पर वह बैठी थी। उसे दूर से देखकर मैंने सिर झुका लिया और आगे बढ़ चला। मन में सोचा, ‘यह औरत क्या, छूने भी नहीं देगी। वैसे भी गांव के लड़कों और ससुर के लंड से मजे ले-लेकर थक चुकी है। क्यों इसके चक्कर में पड़ना? वैसे भी यह कोई अप्सरा थोड़े ही है? देखने में तो काली… न नाक है न नक्शा!’ मन ही मन यह सब बड़बड़ाते हुए मैं चल पड़ा। जैसे-जैसे उसका घर नजदीक आया, मन में एक अनजानी सी बेचैनी होने लगी। चोर-चोर नजरों से उसके प्रति छिपा हुआ आकर्षण मन में उभर ही आया था। इसलिए मन में आया कि वह मुझे पुकारे और घर बुलाए। मैं उसके घर के पास पहुंचा… दरवाजे के सामने से गुजरा… जानबूझकर चलने की रफ्तार धीमी कर दी थी… लेकिन दरवाजा पार करके आगे बढ़ गया, फिर भी उसने कोई आवाज नहीं दी… एक तरह से उदास मन से मैं आगे बढ़ गया। कुछ कदम और चला। अब जानबूझकर चलने की रफ्तार कम करने की जरूरत नहीं थी।

उम्मीद टूटने से वह अपने आप धीमी हो चुकी थी। अगले दिन दोपहर को वह फिर आई। काफी देर तक बैठी रही। इस बार मैं जानबूझकर उसकी ओर ही देख रहा था। लेकिन उसका चेहरा बिल्कुल भावहीन था। मानो उसे यह खेल पता ही नहीं! मैंने काफी देर तक उसकी ओर टकटकी लगाकर देखा… लेकिन वह टस से मस नहीं! कोई हलचल नहीं। न ही कल की तरह उसकी छाती के शिखरों का दूरदर्शन हुआ। मैंने कुछ देर इंतजार किया। फिर झुंझलाकर उठ खड़ा हुआ। वह तो मां से बातें करते हुए बैठी रही। मैं दरवाजे पर पहुंचा और मुड़कर देखा। खटिया पर मां और वह आमने-सामने बैठी थीं। मां की पीठ दरवाजे की ओर थी। इसका फायदा उठाने का मैंने फैसला किया और दरवाजे से मुड़कर देखते हुए मैंने अपना हाथ पैंट की जिप वाले हिस्से पर रखा और ऊपर से रगड़ने जैसा किया। मानो नंदा को देखकर मुठ मार रहा हूं या लंड रगड़ रहा हूं! मुझे अंदाजा भी नहीं था कि मेरे इस कृत्य का ऐसा नतीजा होगा। नंदा ने बात करते-करते आंखें फाड़कर मेरी ओर देखा और देखती ही रह गई। मां का ध्यान न जाए, यह भांपकर मैं फौरन वहां से खिसक लिया।

पीछे क्या हुआ, पता नहीं। ‘साली, मुझे उल्लू बनाती है क्या? मैं भी ऐसे खेल खेलने में तेरा बाप हूं! इन खेलों में तो हमने स्कूल के दिनों में ही महारत हासिल कर ली थी। तेरा नसीब समझ, कल और आज मां थी और तू हमारे घर में थी… अकेली मिली होती तो तुझे पूरी तरह रगड़ डालता!’ मन में ऐसे नाना विचार लाते हुए मैं बाहर घूम रहा था। गांव में सौंदर्य के तरह-तरह के नमूने दिखते हैं, लेकिन एक कमी है। वह यह कि जानबूझकर किसी को छेड़छाड़ नहीं कर सकते।

इसके अलावा, सिर्फ कपड़ों में देखकर संतुष्टि नहीं मिलती, लेकिन बिना कपड़ों के या कम कपड़ों में शरीर शहर में जैसे दिखते हैं, वैसे गांव में देखना मुश्किल है! कल की तरह ही मैं शाम को घर लौटने लगा। नंदा कल की तरह ही दरवाजे पर बैठी थी। लेकिन इस बार मैंने मन में कोई उम्मीद नहीं पाली थी। इसलिए एक तरह से निश्चिंत होकर और सिर तानकर मैं चल पड़ा। उसके घर के सामने से गुजरते वक्त अचानक आवाज आई, “हमारे घर नहीं आना, ऐसा कोई प्रण लिया है क्या!” मैं ठिठक गया।

यह नंदा की ही आवाज थी। मैंने उसकी ओर देखा। वह अब दरवाजे से टेक लगाकर देहली के अंदर खड़ी थी। मैंने उसकी ओर देखा, कल वाले ही शरारती और खट्याळ भाव उसके चेहरे पर थे। लेकिन मैं उसका लुभाने में नहीं आया। “ऐसा कुछ नहीं। लेकिन बिना बुलाए किसी के घर क्यों जाना!” मैंने जवाब दिया। वह थोड़ा हंसते हुए बोली, “अरे… अरे… कहता है किसी के घर! इतने पराए तो हम नहीं हैं?” इस पर मैं क्या बोलता? अनजाने में मेरे कदम उसके घर की ओर बढ़ गए। मुझे आते देख वह अंदर चली गई। मैं उसके पीछे-पीछे अंदर गया। घर का ढांचा साधारण सा था। बाहर हॉल था, जिसमें एक खटिया थी। शायद ससुर यहीं सोता होगा। अंदर जाते वक्त दाईं ओर बेडरूम था, और सीधे आगे किचन। खटिया पर बैठने पर किचन दिखता था। हॉल में एक भी खिड़की नहीं थी।

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इसलिए शाम होने पर बिना लाइट के चलना-फिरना मुश्किल था! मैं खटिया पर जाकर बैठ गया। वह इस वक्त किचन में थी। वह अंदर गैस जला रही थी। कुछ पल बीते और रिवाज के तौर पर वह पानी का गिलास लेकर बाहर आई और मुझे दे दिया। वास्तव में मुझे पानी की जरूरत बिल्कुल नहीं थी, लेकिन औपचारिकता के संस्कार हमें कितना बांधे रखते हैं, यह हमें खुद ही नहीं पता। जरूरत न होने पर भी मैंने पानी से भरा गिलास हाथ में ले लिया। जाहिर है, गिलास लेते-देते वक्त स्पर्श तो होना ही था… लेकिन न जाने क्यों… उसके हाथ से गिलास छूटा नहीं और मैंने भी बिना जोर लगाए गिलास को सिर्फ छुआ था… असल में मेरी उंगलियां उसकी उंगलियों पर थीं… हल्की सी पकड़ बनी… “आह…!” बिना किसी कारण के और कुछ भी न होने पर उसने यह सिसकारी भरी! वास्तव में, तीन बच्चों की मां, जो रोज पति का लंड लेती हो, ऐसी औरत का इस स्पर्श से रोमांचित होना मुमकिन नहीं।

शायद यह मुझे भड़काने की उसकी हरकत थी। लेकिन मुझे उस वक्त यह समझ नहीं आया! उसकी उस सिसकारी से मैं अभिभूत हो गया। ‘मुझमें कोई जादू है… मेरे स्पर्श में… इसलिए वह रोमांचित हो गई… कांप उठी…’ वास्तव में वह नहीं, मैं ही कांप उठा था! औरतों का स्पर्श मेरे लिए नया नहीं था, लेकिन जब आप हिम्मत के साथ किसी औरत को छूते हैं, वह अनुभूति कुछ अलग ही होती है। उसने ही अपना हाथ धीरे से छुड़ाया और अंदर चली गई। मैं उसकी पीठ की ओर ललचाई नजरों से देख रहा था। उसके नितंबों की वह मोहक हलचल देखकर मेरे लंड में अच्छी खलबली मच गई थी। जांघों के बीच उसे दबाकर मैं बैठा था। वास्तव में हमारा खेल खुल्लम-खुल्ला चल रहा था, लेकिन न जाने क्यों… अभी ज्यादा आगे नहीं जाना चाहिए, ऐसा मुझे लग रहा था। कुछ देर बीती।

उसने चाय बनाई थी, यह मैं उसकी खुशबू से समझ गया। “ज्यादा मीठी चाय चलेगी क्या?” “चलेगी!” “बिना दूध की चाय चलेगी क्या? हमारे पास दूध नहीं है। दूध खत्म हो गया है।” इस तरह हमारे सवाल-जवाब हॉल से किचन तक चल रहे थे। उसके आखिरी सवाल पर मैं जवाब देने वाला था, ‘बिना दूध की चलेगी… तू बस इधर आ, मैं देखता हूं कैसे दूध डालना है…’ लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं हुई। सिर्फ “हां… चलेगी!” इतना कहकर चुप हो गया। कुछ देर बाद कप-प्याली की खटपट हुई और दोनों हाथों में कप-प्याली लेकर वह बाहर आई। बाहर आते वक्त उसके चेहरे पर वही हंसी थी। इसका मतलब मुझे समझ नहीं आ रहा था। “वैसे तो हमारे पास रोज दूध होता है, लेकिन आज तुझे नहीं मिला। तो आज बिना दूध की चाय पी ले… चाय!” मेरी ओर कप-प्याली देते हुए वह बोली।

कप-प्याली लेते वक्त मैंने कप में बिल्कुल नहीं देखा। मेरा सारा ध्यान उसके चेहरे, छाती और जांघों के बीच पर था। वह बोली तो कुछ बोलने के लिए मैंने मुंह खोला, “तुम्हारा दूध कैसे खत्म हो गया?…” और मैंने जीभ काट ली। दिमाग में बार-बार उसी का ख्याल और उसकी कल्पनाएं थीं, इसलिए मैं जल्दी में बोल गया। बोलने के बाद मुझे अपनी गलती समझ आई, लेकिन तीर तो कमान से निकल चुका था! उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे। वास्तव में मुझे घबराना चाहिए था, लेकिन वह घबरा गई। घबराहट में मेरी ओर कप-प्याली देकर वह खटिया पर बाजू में बैठ गई। उसने कुछ नहीं बोला। ‘मुंह खोला और गटर खुल गया’ मैं खुद को कोसने लगा।

इस बार कप में देखा तो चाय दूध वाली ही थी! वह तो मेरा मजाक उड़ा रही थी… लेकिन अनजाने में मैं उसका ही मजाक उड़ाकर बैठा था। जैसे-तैसे जीभ जलने के बावजूद मैंने वह चाय घूंट-घूंट करके पी ली। वह धीरे-धीरे प्याली में चाय डालकर उस पर फूंक मारकर पी रही थी। फूंक मारते वक्त उसके होंठों की हलचल देखकर मन में आया, अगर मेरे लंड को उसके होंठ ऐसे ही छूएं तो… इस ख्याल से लंड फिर उछलने लगा। मैंने घबराहट में चाय खत्म की और कप-प्याली बाजू में रख दी। वास्तव में अब उठकर जाना बेहतर था, लेकिन मुझे उसके सामने उठना मुश्किल लग रहा था। क्योंकि, मेरी पैंट में मेरा बांस कितना तन गया था, यह उसे तुरंत समझ आ जाता।

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शर्ट को पैंट के अंदर डालने से ऐसी दिक्कत होती ही है! कुछ देर बाद उसकी चाय खत्म हुई और दोनों कप-प्यालियां लेकर वह उठी। “कैसी लगी… हमारे घर की बिना दूध वाली चाय?” अंदर जाते-जाते उसने पूछा। मैं सिर्फ हंसकर सिर हिलाया। मुंह खोलने पर कुछ भड़कीला निकल जाएगा, इस डर से! वह कुल्ले मटकाती अंदर चली गई। उसकी शानदार चाल से अब मेरा लंड पागल हो चुका था। मैं झट से उठा और भागता हुआ घर पहुंचा और सीधे बाथरूम में घुस गया। हस्तमैथुन कितना बड़ा वरदान है, यह ऐसे मौके पर मन को समझ आता है। लेकिन फिर सोचा, अब क्या करें? थोड़ा सोचकर मैंने कदम बढ़ाए। पैरों की ज्यादा आवाज न हो, इसका ध्यान रखते हुए मैं आगे बढ़ा और कुछ दूरी तय करने के बाद रास्ते की बाईं ओर नीचे उतर गया और उस आवाज की दिशा में चल पड़ा। सावधानी से कदम रखते हुए मैं आगे बढ़ा।

बाग का बाड़ा आ गया। उस बाड़े के साथ लगकर अमरूद और अनार के पेड़ थे। उन पेड़ों से कुछ दूरी पर मुझे आगे का नजारा दिखा… पेड़ों की पत्तियां और टहनियां आड़े आ रही थीं, इसलिए साफ कुछ दिख नहीं रहा था, लेकिन एक अधेड़ उम्र का बूढ़ा और उसकी ही उम्र की एक औरत की धक्कम-धुक्की चल रही थी। बूढ़ा शायद बाग का रखवाला या मालिक होगा और वह औरत तो जानी-पहचानी थी। जानी-पहचानी यानी मजदूरी पर काम करने वाली थी। हमारे खेत में भी उसे कई बार काम करते देखा था।

वह जमीन पर लेटी थी। बूढ़ा उस पर था। उसके पैर घुटनों से मुड़े हुए और पेट के पास आए हुए थे। उसका साड़ी कमर के ऊपर थी।। उसके काले लेकिन मोटे पैरों ने बूढ़े की कमर को जकड़ रखा था। बूढ़ा पूरी ताकत लगाकर अपनी कमर हिला रहा था।। काफी देर तक धक्कम-धुक्की करने के बाद आखिर बूढ़ा थक गया।। पानी छूटते ही वह बाजू में लुढ़क गया।। बूढ़े के हटते ही वह औरत फटाफट उठी।। अपनी साड़ी ठीक की।। तब तक बूढ़ा थोड़ा होश में आ गया था।। उसने उठकर खड़े होकर अपनी धोता कमर के चारों ओर लपेटा और पास में पड़ा कुर्ता उठाकर उसमें से कुछ पैसे निकाले और औरत के हाथ में थमा दिए।।

औरत ने पैसे लिए और तेजी से कदम बढ़ाते हुए गांव की ओर निकल गई।। खाली हो चुका बूढ़ा सीटी बजाता हुआ बाग में आगे बढ़ गया।। न उस औरत का पीछा करने की मेरी इच्छा थी और न ही बूढ़े का। उनके जाने के बाद मैं रास्ते पर लौट आया।। उस औरत को देखकर मैं उत्तेजित तो नहीं हुआ, न ही मुझे उसे पकड़कर करने की इच्छा हुई।। लेकिन… लेकिन… उन सिस्कारियों और उस संभोग ने मेरी वासना को जरूर भड़का दिया था।। मन में नंदा के विचार और तेज हो गए थे।। उसकी यादों से मैं एक तरह से आग बबूला हो उठा था।। तेजी से कदम बढ़ाते हुए मैं कब गांव में आ गया, पता ही नहीं चला।। इस बार पूरी तरह अंधेरा हो चुका था।। घड़ी देखी तो साढ़े सात बज चुके थे।। घरवाले सब मेरी ही राह देख रहे होंगे, सोचकर मैं तेजी से घर की ओर चल पड़ा।। रास्ते में नंदा का घर पड़ा ही… मैंने चोर नजरों से देखा… वह दरवाजे पर नहीं थी।। थोड़ा बुरा लगा।।

पिछले दो दिनों से उसकी जैसे आदत सी हो गई थी… इसलिए थोड़ा उदास सा महसूस हुआ।। घर पहुंचा।। जैसी उम्मीद थी, सब मेरी ही राह देख रहे थे।। खेत में या कुएं पर गया था, यह कहने का कोई मतलब नहीं था।। बस इतना कहा कि गांव में था और वक्त काट लिया।। चाय-पानी करके फिर घर से बाहर निकल पड़ा।। जानबूझकर धीरे-धीरे चलते हुए नंदा के घर के सामने से गुजरा।। इस बार तो वह होगी, ऐसी उम्मीद थी और… “आज बारह बजा दिए?” उसकी आवाज कानों में पड़ी।। उम्मीद थी, फिर भी अप्रत्याशित ही था! मैं थोड़ा चौंक गया और मुड़ा।। वह दरवाजे पर खड़ी थी।। बिना कुछ बोले मैं उसके पास गया और दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया।। “नहीं तो, आज बारह बजा दिए! नहीं आया, कल की तरह… बिना दूध वाली चाय पीने!” आंखें मिचकाते और शब्दों पर जोर देते हुए वह बोल रही थी।। उसके उस ठसकेदार लहजे और उसके दर्शन से जांघों में खलबली मच रही थी।। “नहीं, आज घर जाने में थोड़ी देर हो गई।। अभी घर पहुंचा, चाय पी और थोड़ा बाहर घूमने निकला!” मैंने जवाब दिया।। “झूठ!” बोलने में वही ठसका।। “मुझे नहीं दिखा तू? मैं तो यहीं थी!” वह बोली।। “नहीं, मैंने अभी देखा।। लेकिन तुम दिखी नहीं।।” मैं अनजाने में बोल गया।। वह हंस पड़ी।। ‘हाथ इसके माय-बाप को! क्यों बोले हम? अब तो यह और चिढ़ाएगी!’ मैंने मन में कहा।। “अब चाय पी ली है तो चल… चाय रहने दे।।

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आज खाना खाने आ।।” उसके बोलने से कोई सुराग मिल रहा था क्या, यह मैं देख रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था।। “खाना नहीं हो पाएगा।। बैठने आऊंगा… तुम्हारे पास!” आखिरी शब्द में ‘तुम्हारे’ को साफ बोलकर ‘पास’ को मैंने हल्का सा अस्पष्ट किया।। इसका मतलब वह समझ गई।। क्योंकि वह थोड़ा हंसी और अंदर मुड़ गई।। ‘मुड़ते वक्त उसने नजरों से मुझे अंदर आने का इशारा किया था क्या?’ यह सवाल मेरे मन में उठा।। कुछ पल बीते।। ‘मुड़कर अंदर जाते वक्त उसकी पलकें फड़फड़ी थीं, लेकिन इसका सटीक मतलब क्या? छोड़ो मतलब, घर में जाकर देखते हैं’ ऐसा सोचकर मैं अंदर घुस गया।। मेरे अंदर आने या न आने को लेकर नंदा भी थोड़ी अनिश्चित थी।। वह इस वक्त किचन में कुछ खटपट कर रही थी।। मैं सीधा किचन में गया और दरवाजे की चौखट से टेक लगाकर खड़ा हो गया।। वह किचन के कट्टे से टेक लगाकर पीठ करके खड़ी थी।।

मेरी भूखी नजरें उसके नितंबों पर थीं।। ‘नग्न अवस्था में उसके नितंब कैसे दिखते होंगे?’ यह ख्याल मन में आया और नीचे हलचल होने लगी।। पैंट में लंड कुलबुला रहा था, लेकिन आज छुपाने की कोई जरूरत नहीं, ऐसा मैंने ठान लिया था।। इसलिए लंड खड़ा हो, उसे दिखे, लेकिन अब पीछे नहीं हटना, यह मेरा पक्का इरादा था।। उसका काम चल रहा था।। शायद उसे अहसास था कि मेरी नजरें उसकी पीठ पर फिर रही हैं।। औरतों को क्या और मर्दों को क्या… कोई उन्हें घूर रहा है, यह आसानी से समझ आ जाता है! नंदा के साथ भी यही हुआ।। बल्कि शायद वह यही चाहती थी कि मैं उसे घूरूं! कुछ पल बीते।।

वह बोली, “मैं खाना बनाती हूं, तब तक बाहर बैठकर टीवी देखना है तो देख!” मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि वह ऐसा कुछ सुझाएगी।। इसलिए मैं पहले तो थोड़ा घबरा गया।। यानी मुझे फौरन कोई जवाब सूझा ही नहीं।। “मैं क्या कह रही हूं? कभी-कभी इंसान को बोलने पर भी ध्यान देना चाहिए!” बाकी कुछ हो या न हो, नंदा बोलने में तो माहिर थी।। मैं अब थोड़ा संभल गया था।। “अकेले टीवी देखकर क्या हिलाऊं?” बोलते वक्त ‘क्या’ शब्द को मैंने थोड़ा अस्पष्ट सा बोला।। मुझे अब उसकी प्रतिक्रिया आजमानी थी।। मेरे शब्द कानों में पड़ते ही वह थोड़ा चौंकी।। वह रोटी का आटा गूंथते हुए कट्टे के पास खड़ी थी।। आटा गूंथने की उसकी हलचल रुक गई।। कुछ पल बीते और उसने पीछे मुड़कर देखा।। चेहरे पर अविश्वास और शरारती हंसी का मिश्रित भाव था।।

“तो शादी कर ले! ताकि अकेले हिलाने की जरूरत न पड़े… पैर!” आखिरी शब्द को उसने हल्का सा रुककर बोला।। बस! मुझे इतना ही चाहिए था।। नंदा कहां तक साथ देगी, मुझे पहले शक था, लेकिन उसके इस जवाब से मैं समझ गया कि नंदा अब उत्सुक हो चुकी है।। इस खेल का अंत अब बिस्तर पर होने वाला है, यह पक्का था! बस यह सवाल था कि पहल कौन करेगा।। आखिर मैंने मन में फैसला कर लिया।।

नंदा काकी भाग 3

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